ऐसा लगता है, पूरे मुल्क के सारे मुद्दे हल हो गए हैं और बस एक अकेला मुद्दा किसी “आसाराम” का बचा रह गया है…! जी हां, रमरतिया, हुलसी, फूलगेना, महुआ, जोगनी, सेमरी और ऐसे ही हजारों लाखों बच्चियां, जो बिलकुल मेरी बहन और बेटी की तरह ही रही होंगी पर दुर्भाग्य से अपने मासूम बचपने की क्रीड़ाओं के बीच, एक झटके से नारी देह की सजा “बलात्कार” की पीड़ा भोगने को मजबूर हुईं और उन्हें भोगने वाला कोई संत, मंत्री या नौकरशाह नहीं था, जिसके हो हल्ले से कोई राजनैतिक रोटी सेकी जा सकती, लिहाजा वे मासूम बच्चियां, अपने साथ हुए हादसों की दर्द देते रहने वाली किरचियों के साथ, अपने अकेलेपन में उन बेहद भयावह पलों को याद कर दर्द क्षोभ अपमान और अलगाव के मिले-जुले अहसाह से गुजरते, अपने दर्द और दमित आत्मसम्मान के साथ ख़ामोशी से जी रही हैं |
एक थी निर्भया, भारत की बेटी ! मोमबत्तियां लिए हुजूम का हुजूम दिल्ली की सड़कों पर उमड़ पड़ा, आखिर आन्दोलन भी “कोका-कोला” के कैम्पेन की तरह मजेदार ध्वनि-प्रकाश के सम्यक मेल के साथ सुन्दर दिखना ही चाहिए ! शर्म आती है यह सोच कर कि वो मोमबत्तियां, तब क्यों नहीं जलती जब झारखण्ड के पाकुड़ जिले में चार अबोध नाबालिग लड़कियों के साथ चाकू की नोक पर बलात्कार होता है, जिनमें से दो तीसरी कक्षा में पढने वाली बारह-तेरह बरस की बच्चियां थी, जबकि बाकी दो की उम्र भी अठ्ठारह साल से कम ही थी ? नौ आदमियों का एक समूह एक मिसनरी के छात्रावास से, जिसमे लगभग 150 विद्यार्थी और 25 औरतें रहती हैं, चार लड़कियों को स्कूल से 500 मीटर दूर खुले में ले जा कर उनके साथ दुराचार करते हैं, लड़कियां दो घंटे बाद ख़ुद वापस लौटती हैं, क्या इन बच्चियों की आबरू मेरी और आपकी बेटी और बहनों से कमतर है ? क्या इनका दर्द निर्भया या मुंबई की बीती रात, बलात्कार की शिकार पत्रकार या फिर आसाराम के मामले वाली बच्ची के दर्द से अलग था ? अगर नहीं, तो फिर उनपर कहीं प्रदर्शन या हंगामा क्यों नहीं था , ऐसे हजारों हजार मामले सामने क्यों नहीं आते, क्यों नहीं आती, आपके पड़ोस की कोई ऐसी ख़बर जो आपकी जानकारी में होती है, पर आप चुप्पी साध जाते हैं, क्यों ? क्या झारखण्ड का पाकुड़ ज़िला हिंदुस्तान में नहीं है ? क्या बिहार का लखीसराय पाकिस्तान में है ? या लखीमपुर खीरी के गन्ने के खेतों में बच्चियों से अक्सर हो रहे बलात्कार की ख़बरें किसी और ग्रह की बात हैं ? या क्या ये लड़कियां आदमी की बच्चियां नहीं ?
ऐसा नहीं है ! पर इन ख़बरों के साथ आपको धर्म को गाली देने का मसाला नहीं मिलेगा, इन ख़बरों के साथ, ध्वनि-प्रकाश-धुन के साम्य की जगह, उमस भारी पसीने की चिपचिपाहट जुड़ी होगी | इन ख़बरों से आपके व्यक्तिगत कुंठा का प्रकटन नहीं हो पायेगा, “रोम का राज्य जीतने के लिए रोम के राजा से जिसे जख्म मिले हों ,मरहम उसे ही लगाना होगा”|
पर भाई मेरे, आप साधते रहिये अपने अलग-अलग एजेंडें, मैं ऐसा नहीं कर सकता, बलात्कार की शिकार, हर बच्ची की आँखों का नीरीह्बोध मेरे लिए मेरी बच्ची की आँखों का भी ख्याल करा देता है, लिहाजा यह एक अकेला बाप, आसाराम का शिकार हुई बच्ची के साथ साथ, हर उस बच्ची की फिकर करता है, जिसकी फिकर होनी ही चाहिए |
(लेखक कश्यप किशोर मिश्रा सामाजिक कार्यकर्ता हैं। )
Good ! Very good article!!!
मान्यवर कश्यप किशोर जी, आपने बाखूबी नारी जाति की पीड़ा को समझा और उस पीड़ा को न्याय के साथ शब्दांकित भी किया…वाकई…अपनी भावनाओं की प्रबलता को अच्छे से व्यक्त किया आपने।
कश्यप किशोर जी ने सिस्टम पर चोट करते हुए लिखा है। अच्छा लगा। लकीर के फकीर तो बहुत पड़े हैं।